Wednesday, January 16, 2013

क्या दोष परवरिश का है?

        

        विकृति मानसिकता

बलात्कार पर विरोध



शुक्रिया ओ जाँबाज़ लड़की, इस दुनिया में आने और इस देश के साथ ही दुनिया के कई हिस्सों को झकझोरने के लिए. हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है और हमारी संवेदनाएं लगातार सुन्न हो रही हैं. हमारे हर ओर चीज़ें इतने अतिरेक में इस क़दर ज़्यादती में हो रही हैं कि हम पर अपने आस-पास की सुंदरता और दर्द का असर होना बंद होता जा रहा है. और ये असंवेदनशीलता रोजबरोज़ बढ़ती जा रही है. इस वक्त बाहरी स्तर पर बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है- न्यायापालिका, पुलिस, सरकारी नीतियां.. सब जगह बड़े बदलावों की जरूरत है. हालांकि मेरे लिए बड़ा बदलाव, असल बदलाव आंतरिक स्तर पर होना चाहिए. वो बदलाव होना चाहिए मेरे दिमाग मे, हर भारतीय के दिमाग में. ये दुख की बात है कि एक भारतीय लड़के के दिमाग को कभी किसी लड़के के दिमाग के बराबर ही नहीं समझा जाता.
असमानता के बीज
दरअसल हमारे समाज में लड़के को लेकर कभी किसी के दिमाग में सुरक्षा के जुड़े उपाय नहीं आते और न ही किसी को उसकी शादी की चिंता होती है. उसके लिए दहेज की भी कोई परवाह नहीं होती और न ही इस बात फ्रिक की जाती है कि वो एक लड़के को जन्म दे पाएगा या नहीं. उसे तो हमेशा ऐसा सस्ता निवेश माना जाता है जो हमेशा ऊंचा मुनाफा देता है.दुर्भाग्य से यही वो सच है जिसकी वजह से हर भारतीय माता-पिता बेटे की इच्छा करता है.लड़के और लड़की में भेदभाव को आप छोटी-छोटी बातों में भी महसूस कर सकते हैं. इसकी शुरुआत तभी हो जाती है जब छोटे-छोटे लड़कों की माँएं उन्हें खेल के मैदान में पेड़ों की जड़ों में पेशाब करने देती हैं जबकि लड़कियों को बाकायदा शौचालयों में ले जाया जाता है.इसकी शुरुआत तभी हो जाती है जब हम लड़कों को बचपन में जानवर कह कर बुलाते हैं और लड़कियों को कोमल गुड़िया. हमारे दिमाग में ये भेदभाव तभी से आकार लेने लगता है. लड़के को हम छोटा ही सही लेकिन जानवर मान लेते हैं और कई बार ये समझने लगते हैं कि उसे सुधारना मुश्किल है. वहीं लड़कियों को बचपन से ये सिखाया जाता है कि उन्हें कैसे बैठना है, कैसे खड़ा होना है और कैसे चलना है. उन्हें ऊंची आवाज में बात न करने को कहा जाता है, साफ सुथरा रहने की सीख दी जाती है और बाकी बहन भाइयों का ख्याल रखने की हिदायत दी जाती है. लड़कों को इनमें से कुछ नहीं सिखाया जाता है. अपने  लड़कों को आम इंसानों की तरह रोने देंगे. अपने बेटों से हम कब ये कहना छोड़ेंगे, “क्या लड़कियों की तरह रो रहे हो?” समय आ गया है कि हम अपने लड़कों को एक सामान्य इंसान की तरह व्यवहार करने दें. समय आ गया है जब सिर्फ लड़कियों के लिए ही नहीं, लड़कों के लिए भी नियम बनाए जाएं. हमें अपने बेटों और बेटियों को सिखाना होगा कि उन्हें आत्मनिर्भर बनना है.
मतलब हमारे बेटों को पता होना चाहिए कि खाना कैसे बनाते हैं या साफ सफाई कैसे करते हैं. दूसरी तरफ बेटियों की सिखाना होगा कि पैसे को कैसे कमाना है और कैसे संभालना है. उन्हें बाहरी दुनिया को समझने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाना होगा. हमें बच्चों के साथ माता पिता और समाज के तौर पर संपर्क कायम करना होगा. जब कोई बच्चा या युवा गलत रास्ते पर कदम बढ़ाता है तो उसे अपने माता पिता और समाज पर भरोसा करना होगा कि वे उन्हें सुरक्षा देगें और अपराधियों को सजा देंगे.

हमारी अंदरूनी दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है जिसे हमें दुरुस्त करना है. दामिनी/निर्भया/अमानत, वेदना तुमने हमें एक आइना दिखाया है... धन्यवाद उन बहादुर लोगों का जिन्हें सड़कों पर उतर कर हमें अपनी वास्तविकताओं का सामना करने का रास्ता दिखाया है. हमें आपको अपनी अंदरूनी दुनिया करने का वादा करना होगा ...। सही मायने में यहीं वेदना की सच्ची श्रृद्धांजलि है...।

Wednesday, May 26, 2010

पीएम ने कह कर भी कुछ नहीं कहा

गठबंधन धर्म को निभाते हुए यूपीए सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा किए। बड़े जश्न की तैयारी थी। तमाम व्यवस्थाएं भी हो गई थी। लेकिन मैंगलोर में हुए विमान हादसे ने रंग में भंग कर डाला।  और जश्न मातम में बदल गया।खैर छोड़िए....  अब आते है मुद्दे की बात पर.......
    UPA PART-2 का एक साल पूरे होने पर मनमोहन मीडिया से मुखातिब हुए, राष्ट्रीय पत्रकार सम्मेलन के जरिए। देश के तथाकथित नामी-गिरामी  प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादक  दिल्ली के विज्ञान भवन में जमा हुए। और मनमोहन के सामने  बंदूक
 से निकले गोली की तरह प्रश्नों का  पत्रकारों ने बौछार करना शुरू किया। आज के इस लाइव मीडिया के दौर में तमाम टेलीविजन चैनल इस प्रेस  कॉन्फ्रेंस को दिखा रहे थे। और अपने चिर-परिचित अंदाज में मनमोहन सिंह  रूआंसे अंदाज में   पत्रकारों के सवालों का जवाब देते नजर आएं।
 सवाल भी पत्रकार बंधु वहीं रटा- रटाया तोते की जुमलाबाजी की तरह  पूछ रहे थे। पहला सवाल जो  एक निजी अंग्रेजी न्यूज चैनल के बंधु ने पूछा.....MR. Manmohan singh whats, your stratigey  to curb the Naxal threat?
   मनमोहन को देश की जनता भले ही राजनीतिज्ञ कम अर्थशास्त्री के रूप में  देखता हों, लेकिन 6 साल से पीएम की कुर्सी संभालकर राजनीति के भी वो माहिर खिलाड़ी बन गए है। बस क्या था। तुरंत मनमोहन ने जवाब देना शुरू किया...... गृहमंत्रालय इस मामले में नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों के साथ मिलकर  समस्यां  से निपटने के काम में जुटी है। वहीं नक्सली इलाके में एक बार  प्रधानमंत्री चिदंबरम का डॉयलॉग दुहाराते नजर आएं .... विकास से ही समस्यां का समाधान हो सकता है। वहीं दूसरा सवाल महंगाई जिससे आप हम सब लोग वाकिफ  है। महंगाई को लेकर जनता त्रस्त है। महंगाई के सवाल पर सरकार संसद में भी घिरती रही है। मनमोहन ने दिसंबर तक महंगाई को कम होने का भरोसा देश की जनता  को दिलाया। वहीं एक और सवाल आतंक से जुड़ा अफजल गुरू को फांसी को लेकर था,जिसपर पीएम ने कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए अपना पल्ला झा़ड़ा। लेकिन सबसे मह्तवूर्ण रहा आप रिटायर कब हो रहे है। मनमोहन ने कहा  कांग्रेस पार्टी और हम चाहते है कि युवा नेतृत्व को मौका मिलें..... और राहुल में पीएम  बनने के  सारे काबिलियत है। लेकिन अगले ही पल पासा बतलते हुए उन्होंने कहा कि हमारे कंधे पर जो काम सौंपे गए है। वो अभी अधूरे है,जब तक वो पूरा नहीं होता है,तब तक रिटायरमेंट का सवाल ही नहीं उठता। कुल मिलाकर पूरे प्रेस वार्ता में मनमोहन ने कह कर भी कुछ भी नया नहीं कहा ,जिसे जनता जानना और समझना चाहती है।

Thursday, February 25, 2010

ममता की ममता

बजट चाहे आम बजट हो या रेल बजट जनता की बड़ी आस लगी रहती है कि बजट के पिटारे से क्या निकलेगा। इस साल भी 24 तारिख को ममता बनर्जी ने संसद में रेल बजट पेश किया। आम से खास लोग टीवी स्क्रीन पर टकटकी लगाए बैठे थे कि ममता अपने पिटारे से क्या खुछ खास निकालने वाली है।यकिन मानिए एक पत्रकार के नजरिए से ममता के रेल बजट का विश्लेषण करें,तो मुझे तो ये लगता है कि ममता ने पिछले साल के रेल बजट के कुछ अंश को संपादित करके हु-बहु पढ़ दिया। हालांकि फिर भी बजट में कुछ खास था,जिसे लोकलुभावन कहा जा सकता है। लोकलुभावन इस लिहाज से पिछले सात साल से रेल किराए में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। खास कर यात्री किराए में। कुछ अर्थशास्त्री इस बात की चर्चा कर रहे थे,कि आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार और वैश्विक मंदी की आड़ में ममता रेल बजट में कुछ किराए बढ़ा सकती है। लेकिन पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की वोट की ताक और जनता की वाहवाही की आस में ममता ने किराए नहीं बढ़ाए। मनमोहन सिंह की टीम में रहते हुए ममता ने भी अर्थशास्त्र की कुछ पाठ पढ़ ली है। और एक अर्थशास्त्री की तरह वर्तमान समय के नब्ज को टटोलते हुए PPP यानि की पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के अंतर्गत रेलवे को बिजनेस मॉडल पर जोर दिया। सीधे शब्दों में कहें, तो रेलवे में निजी निवेश बढ़ाने को तरजीह दी गई। हालांकि रेलवे में निजीकरण की बात को उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। रेलवे के संसाधनों को कैसे अधिक से अधिक उपयोग किया जाए...इसके लिए भी रेल बजट में उन्होंने प्लानिंग रखीं। खासकर के रेलवे के जमीन को मानव संसाधन विकास मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ समझौते करके रेलवे के जमीन पर स्कूल और अस्पताल खोलने की बात कहीं। सबसे जो इस बजट में मुझे अच्छा लगा वो ये कि भूतपूर्व सैनिकों को रेलवे सुरक्षा बलों में नौकरियां दी जाएगी। इसके साथ ही इस बजट में नए ट्रेन चलाने और कुछ ट्रेनों के फेरा बढ़ाने की बात भी की गई। यूं ये तो हर बजट में ही होता है। मगर जो सबसे बड़ा सवाल है सुरक्षा का ममता के इस बजट भाषण से गायब ही रहा । ये ठीक है कि उन्होंने रेलवे में महिला बटालियन तैनात करने की बात कही। लेकिन आज भी पश्चिमी देशों में न के बराबर रेल दुर्घटनाएं होती है। लेकिन भारत में दुर्घटना दर दुर्घटना....कहीं न कहीं सालों से एंटी कोलीजन डिवाइस की जो बातें चल रही है। इस साल भी रेल बजट में इसे अमली जामा पहनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कब तक हम अपने को दुर्घटना में खोते रहेंगे......कब तक मानवीय भूल कहकर रेल मंत्रालय अपना पल्ला झाड़ता रहेगा। कब तक हम स्टेशन मास्टर और रेलले कर्मचारी को सस्पेंड कर अपना पल्ला झाड़ते रहेंगे। जरूरत है कि सबसे पहले सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता बनाया जाएं...ताकि हम रेलवे में सफर करें,तो सुरक्षा के लिहाज से अपने आप को निश्चिंत पाएं....'.ऐसा नहीं कि सब कुछ भगवान भरोसे'

Tuesday, February 16, 2010

मैं पत्रकार क्यों हूं?

      वे आठ कारण जिसी वजहों से मैं मीडिया में हूं.......
      1.मैं नींद से नफ़रत करता हूं
      2. मैं ज़िदंगी के मज़े ले चुका हूं
      3.मैं बिना तनाव लिए जी नहीं सकता
      4. मैं अपने पापों को प्रायश्चित करना चाहता हूं
      5. मैं गीता पर विश्वास करता हूं-कर्म करो लेकिन फल जाए भाड़ में
      6 . मैं इस तर्क को झुठलाना चाहता हूं कि जिंदगी में हरेक चीज का मकसद होता है
      7.  मैं अपने दोस्तों से दुश्मनी मोल लेना चाहता हूं
ज़ाहिर है कि ऐसे में मीडिया में रहने का खामियाजा तो भुगतना होगा..वो भी ब्रॉडकास्ट मीडिया में..
         यानि कोढ़ पर खाज

वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है

दिल्ली के एक टीवी न्यूज चैनल में काम करने वाले रवींद्र रंजन ने इस आलेख में न्यूजरूम के वर्क कल्चर का खाका खींचा है। यह आलेख उन लोगों को भी बेपर्दा करता है जो तेजी से सफलता की सीढ़िया चढ़ने की कला जानते हैं। इसे हमने रवींद्र के ब्लाग आशियाना  से लिया है।

अचानक उसकी आवाज तेज हो जाती है। वह जोर-जोर स‌े चिल्लाने लगता है। अभी तक विजुअल क्यों नहीं आए। रिपोर्टर ने स्क्रिप्ट क्यों नहीं भेजी। कैसे खबर चलेगी। फिर अचानक वह अपनी कुर्सी स‌े उठकर इधर-उधर भागने लगता है।

यह देखते ही ऑफिस में स‌बको पता चल जाता है कि बॉस आ चुके हैं। जब भी बॉस न्यूज रूम में प्रवेश करते हैं कमोबेश ऎसा ही होता होता है। कभी कोई विजुअल नहीं चल पाता (?) कभी कोई पैकेज रुक जाता है। ऎसा लगता है जैसे स‌भी स‌मस्याओं का बॉस स‌े कोई नजदीकी रिश्ता है। लेकिन न्यूज रूम में स‌बको पता है कि ऎसा क्यों होता है। अगर चुपचाप काम होता रहेगा तो बॉस को पता कैसे चलेगा कि काम हो रहा है। इस‌ीलिए यह तरीका बड़ा कारगर है। बॉस को भी यही लगता है कि देखो बेचारा कितना टेंशन में है। कितना काम करता है। कितना बोझ उठाता है। प्रोड्यूसर न हुआ गधा हो गया। जब देखो तब पूरे चैनल का बोझ उठाए इधर स‌े उधर भागता रहता है। अगर वह न हो तो शायद चैनल ही बंद हो जाए। इसलिए न्यूज रूम में उसकी मौजूदगी बहुत अहम है। अगर वह न चिल्लाए तो शायद कोई खबर ही न चल पाए। अगर वह न चीखे तो शायद उस चैनल में कभी कोई खबर ही ब्रेक न हो। वाकई वह बहुत काम का आदमी है। game
बॉस को देखते ही वह बहुत व्यस्त हो जाता है। कभी फोन पर चीखता है। कभी जूनियर्स पर चिल्लाता है। कभी स‌िस्टम पर गुस्सा उतारता है। वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है। एक्टिव इस कदर है कि कई बार तो उसके लिए पूरा फ्लोर छोटा पड़ जाता है। जब वह भागता है तो लगता है कोई आसमान गिरने वाला है। कुछ लोग उससे बहुत जलते हैं। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि वह उसकी तरह नहीं भाग पाते। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि मजबूरन उन्हें भी इधर-उधर भागने का नाटक करना पड़ता है। लेकिन भागना हमेशा फायदेमंद है। जो भागता है उसे एक्टिव प्रोड्यूसर माना जाता है। जो चिल्लाता है वह बॉस की नजरों में चढ़ जाता है। उसके नंबर बढ़ जाते हैं। जो चुपचाप की-बोर्ड पीटता रहता है या फिर कंप्यूटर पर आंख गड़ाए रहता है, उसे ढीले-ढाले प्रोड्यूसर के खिताब स‌े नवाजा जाता है।
वह स‌ब जानता है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी देर में यहां-वहां भागता रहता है। इससे ऎसा लगता है कि चैनल भाग रहा है, दौड़ रहा है। न्यूजरूम में खामोशी स‌े ऎसा लगता है जैसे चैनल भी खामोश हो गया है। अचानक वह चीखता है और टीवी के स‌ामने खड़ा हो जाता है। अरे, यह देखो फलां चैनल में क्या चल रहा है। यह खबर हमारे पास क्यों नहीं आई? उसके बाद ऎसा माहौल बन जाता है कि जैसे उस खबर के बिना चैनल बंद हो जाएगा। फोन खड़खड़ाए जाने शुरू हो जाते हैं। एक आदमी इंटरनेट पर खबर को खंगालना शुरू कर देता है। तो कोई यू ट्यूब पर विजुअल के जुगाड़ में लग जाता है और कोई रिपोर्टर को गरियाने में। बाद में पता चलता है कि वह खबर तो हमारे यहां तीन दिन पहले ही चल चुकी है।
महेश अभी चैनल में नया-नया आया है। जब भी स्मार्ट प्रोड्यूसर इधर स‌े उधर भागता है तो वह हर बार बस यही स‌ोचता है कि आज तो आसमान गिर ही जाएगा। लेकिन उसे मायूसी ही हाथ लगती है। आसमान कभी नहीं गिरता। स्मार्ट प्रोड्यूसर आस‌मान को हर बार अपने हाथों स‌े थाम लेता है औऱ इस तरह हर बार एक मुश्किल टल जाती है। चैनल बच जाता है। चैनल उसी के दम पर तो चलता है। जिस दिन वह भागना औऱ चिल्लाना बंद कर देगा उसी दिन चैनल बंद हो जाएगा। इसलिए जरूरी है कि वह भागता रहे औऱ चैनल बदस्तूर चलता रहे।मनीष

Friday, February 12, 2010

डर है अपने आप से और शायद घृणा भी

पत्रकार छातियां पीट कर विधवा विलाप कर रहे हैं....नेता सोच रहे हैं कि चलो इसी बहाने अपनी अपनी सियासत सध जाएगी....पब्लिक कहते हैं कि सब जानती है....फिर खामोश क्यों है...या शायद इसी लिए खामोश है....??? और ज़ाहिर है इस सब के बीच सबसे ज़्यादा अगर कोई खुश है तो बाल ठाकरे...उनके लल्ला...और उनके भतीजे राज ठाकरे....अचानक से पैदा हुए इस अति मूर्खतापूर्ण विवाद ने ठोकरें खा रहे बाल और उद्धव ठाकरे को फिर से चर्चा में ला दिया है....बाल ठाकरे जिनके सारे बाल अब सफेद से भी ज़्यादा सफेद रंग के हो गए हैं....कब्र में पैर लटकाए अपने उद्दंड या उनकी खुद की ही भाषा में कहें तो लफंगे कार्यकर्ताओं को कोने में ले जाकर समझा रहे होंगे....कि "ये मौका चूक गए तो फिर दूसरा नहीं मिलेगा...." भतीजे को भी लगने लगा कि मौका अच्छा है बीच में घुसो और बहती गंगा में हाथ धो लो....


अब असल मसला क्या है इस बारे में कोई भी दावा नहीं कर सकता है....पर कुल मिलाकर आम आदमी के अलावा सबके लिए सहालग का वक्त है....(सहालग-शादी के मुहूर्तों का वक्त) और ज़ाहिर है इस सहालग में आम आदमी की हालत लड़की के मां बाप वाली है....समधी खुश है...दुल्हन खुश है....हलवाई और टेंट वाला खुश है....सबके अपने अपने मतलब सध रहे हैं....बाकी कोई चिंता में है तो वो लड़की के मां बाप.....सहालग कैसे कह सकते हैं इस सवाल का जवाब भी समझिए....बाल और उनके लाल खुश हैं कि चलो एक आखिरी मौका मिला....राज इसलिए खुश हैं कि मुद्दा कोई उठाए श्रेय वो ले जाएंगे....बाकी दल इसलिए खुश हैं कि उत्तर भारतीय इंसान हों न हों....वोट बैंक तो हैं ही....सो बयान भर ही तो देना है....पत्रकार खुश हैं कि लम्बे वक्त बाद एक लम्बा चलने वाला मुद्दा हाथ लगा है....टीआरपी भी देगा....सर्कुलेशन भी बढ़ाएगा....और इसी बहाने फिल्मी गॉसिप और सेक्स स्कैंडलों के नॉन न्यूज़ आइटम से कुछ दिन के लिए मुक्ति मिलेगी.....मतलब कि अर्थ भी और धर्म भी....विश्लेषक और बुद्धिजीवी भी बन ठन कर....चेहरे पर चिंता और गंभीरता ओढ़ कर टीवी चैनलों पर काजू टूंगते हुए इस बेहद गंभीर मुद्दे को स्टूडियों में बैठे बैठे ही हल करने की कोशिश कर रहे हैं.....

महाराष्ट्र के बाहर रह रहे उत्तर भारतीय टीवी देख कर दोनो सेनाओं....(शिव और महाराष्ट्र नवनिर्माण) को गालियां दे  रहे हैं..... महाराष्ट्र के बाहर उत्तर भारत में रह रहे मराठी एक अनजाने भय से ग्रस्त हो रहे हैं....और महाराष्ट्र में रह रहे उत्तर भारतीय या तो पिट रहे हैं या पिटाई का इंतज़ार कर रहे हैं.....किंग शाहरुख फिल्म के रिलीज़ के पहले चिल्ला रहे हैं माई नेम इज़ खान....(भले ही बाद में ठाकरे के घर डिनर कर आएंगे....) बिग बी ठाकरे के फैन हो चले हैं....और युवराज राहुल मुंबई जा रहे हैं....किंग खान को सरकार ने सुरक्षा देने की घोषणा कर दी है....लल्ला राहुल को सुरक्षा सरकार को झक मारकर देनी पड़ेगी....बिग बी सेना की शरण में है सो उनकी सुरक्षा ठाकरे के गुंडे कर लेंगे....लेकिन आम आदमी.....उसकी सुरक्षा कौन करेगा....अब यार सबको तो खुश नहीं रखा जा सकता है न....कोई बात नहीं अगली बार आम आदमी की सुरक्षा के लिए सोच लेंगे.....

बाल ठाकरे तुम्हारी हैसियत तुम्हारी भाषा से दिखती है....उद्धव तुम पढ़े लिखे गंवार हो...राज ठाकरे राजनीति के लिए तुम कुछ भी करोगे....लेकिन तुम तीनों से डर नहीं है....डर है अपने आप से....अपने जैसे उन तमाम आम लोगों से सबकुछ देख कर भी कुछ नहीं करना चाहते हैं.....मैंने ब्लॉग लिख कर अपनी भड़ास निकाल ली....और आप टीवी देख कर इन कुत्सित....नीच....मूर्ख कट्टरपंथियों को गरिया कर.....हम अपने वोट से सरकार बदल कर भी माहौल नहीं बदल पाते हैं....हम पड़ लिख कर भी अपने आप को नहीं बदल पाते हैं....हम कुछ नहीं करना चाहते हैं....हम..... डर है अपने आप से....और शायद घृणा भी.....

क्या आपको नहीं है.....जवाब दें.....

Wednesday, February 10, 2010

उन्मुक्त आवाज़

मेरे ब्लॉग का नाम उन्मुक्त आवाज़ क्यो ? एक जर्नलिस्ट होने के नाते मन में अनेक विचार आते है। देश -समाज का हाल देख कर बहुत कुछ कहने और लिखने का मन भी करता है। लेकिन 24 घंटे ज्ञान बघारते ख़बरिया चैनलों ने तमाम जोर-आजमाइश कर रखी है। खासकर जब से निजी ख़बरिया चैनलों की जमघट लगी..। लेकिन बदला कुछ भी नहीं। घोटाले ,बलात्कार,यौन शोषण,घूसख़ोरी,ज़ालसाज़ी,कबूतरबाज़ी, फ़र्ज़ीवाड़ा और राष्ट्रहित के बारे में  हम 24 घंटे टीवी पर चिल्ला रहे  है...लेकिन नतीज़ा सिफर रहा  ।  अब जी  करता है किसी से कुछ न कहो चुप रहो अपनी दाल -रोटी चलाओ.... और बेबाकी से उन्मुक्त होकर अपने विचारों को  ब्लॉग के जरिए प्रेषित करो ।